अगले साल वापस
सिंगापुर का सिटी हॉल मेट्रो स्टेशन | शाम को ऑफिस छूटने की भीड़ है | दिल्ली जैसी धक्का मुक्की तो नहीं पर डब्बा फुल है | अंग्रेजी , केंटोनीज़ , होक्कैन , तमिल , मलय मिक्स के ऊँचे डेसीबल के बीच सामने की सीट पर दो पुरुष हिंदी में बतला रहे है | बोलचाल , मिजाज से दिल्ली के आसपास के लगते है | कॉर्पोरेट की चाकरी करते है | बड़ा चालीस जमा का है | छोटा शायद पैंतीस हो या उससे भी कम | खाता पीता है , शायद शरीर के भारीपन से उम्रदराज दीख पड़ता है | छोटा बड़े से मुखातिब हो कह रहा है " पता नहीं क्यों , ऑफिस में सब सरप्राइज क्यों होते है , जब मैं पेरेंट्स के लिए इंडिया वापस जाने की बात करता हूँ | " और बड़ा आदमी कुछ ऐसी तबियत से सुन रहा है जैसे कोई साइको थेरेपिस्ट हो | "हाँ ये तो है | " इतना भर कहता है बस | मैंने लाइब्रेरी से उधार में ली शार्ट स्टोरीज की बुक खोली है पर उनका वार्तालाप मेरा ध्यान खींच रहा है | छोटा पुरुष " वो इंफ़्रा टीम का जतिन है न ? " " हाँ | " "उसका एक छोटा भाई भी है | पुणे में जॉब करता है | उसकी मदर इंदौर में रहती है | अकेले | कभी गा